Wednesday, June 24, 2009

लो उतर पड़ी नैया

लो उतर पड़ी नैया देखे कौन डुबाते है
इस सरिता की छाती हम चीरते जाते है

तट पर साथी दिखते, है हाथो को मलते
जो साथ में रहते है, वे साथी कहाते है
जो दूर खड़े देखे, वे दर्शक होते है


ये जल की गहराई, ये तूफानी आंधी,
ये निर्बल पतवारें ये नेत्र भी झपते है
नैया डगमग करती तब दर्शक हंसते है

यह आंधी क्यों आती? यह लहरें क्यों उठती ?
आती है तो आवै हम बढ़ते जाते है
रे सुनो! चुनौती इनको देखें क्या कर लेते है

अब मेल हुआ देखो, नैया की गति देखो,
रे प्रेम भाव से हम बढ़ते जाते है
आए रम्य किनारे बल और लगाते है

Monday, June 22, 2009

क्षात्र धर्म के पुनरोदय से

क्षात्र धर्म के पुनरोदय से अग जग में उजियारा हो
ऐसा संघ हमारा हो

उतर से जब देश धर्म पर काले बदल घिर आए
तैमूर लंग गौरी नादिर से अत्याचारी घुस आए
उन प्यासों के पीने के हित खून भरे खप्पर लाए
सोमनाथ पानीपत गूंजे जब हमने ललकारा हो
ऐसा संघ हमारा हो

औरंग ने जसवंतसिंह को काबुल में था मरवाया
दुर्गा ने तीखे भालों से मुग़ल तख्त को थर्राया
मालदेव से मुंह की खाकर शेरशाह था घबराया
जब-जब कुचला गया धर्म तब हमने ही फुफकारा हो
ऐसा संघ हमारा हो


कूटनीति से अकबर ने शेरों को भेड़े बनवाई
मेवाड़ सिंह के सिंहनाद से अरावली भी गुर्राई
केशरिया फहरा भूमि को लाल रंग से रंगवाई
हल्दी घाटी के शस्त्रों का फिर एक बार झंकारा हो
ऐसा संघ हमारा हो


चित्तौड़ दुर्ग की बुझी राख में बीती एक कहानी है
जलते दीपक में जौहर की वीरों याद पुरानी है
चूल्हों की अग्नि में देखो पद्मावती महारानी है
हृदय-हृदय में आग उठे फिर घर-घर में जयकारा हो
ऐसा संघ हमारा हो

जब शक्ति थी जगह जगह तब शत्रु को ललकारा था
हाथों में तलवारे लेकर वक्ष फुला हुंकारा था
जननी के चरणों पर अपना सुख दुःख सारा वारा था
भूली संस्कृति की उर में बहती पावन धारा हो
ऐसा संघ हमारा हो


संघ मन्त्र क्षत्रिय जाति की रग-रग में संचय करने
युवा हृदय की तड़पन ले हम आज चले जग जय करने
दावानल की अग्नि बढे जब सत्य न्याय का क्षय करने
उस दावा से धर्म बचाने आगे कदम हमारा हो
ऐसा संघ हमारा हो

अपनी आत्म ज्योति की लौ से क्षात्र धर्म का दीप जले
पथ से विचलित राजपूत को अपना खोया मार्ग मिले
निष्ठ तपस्वी के समान हम संघ कार्य को किए चले
अपने नेता की आज्ञा पर मरना ध्येय हमारा हो
ऐसा संघ हमारा हो

-स्व.श्री तनसिंहजी

मरुभूमि के मध्य

मरुभूमि के मध्य खिला यह कमल निराला रे
कमल निराला रे
अरावली श्रेणी से फैला सूर्य उजाला रे
सूर्य उजाला रे

जागृति का भी जोश रमा है, प्रात: की सुन्दर सुषमा है
गुण ग्राहक भौरों का निकला दल मतवाला रे
निकला दल मतवाला रे

दल के दल भौरें आते है, अपनापन बिसरा जाते है
मस्त बने है सब पीकर जीवन हाला रे जीवन हाला रे

ताना कस कोई कहता है, अली कली में क्यों फंसता है
अली बिचारा क्या गुण जाने खुद तो काला रे खुद तो काला रे

भंवरा भी प्रत्युतर देता, मरुधर है पानी ना होता
फिर भी खिला अरे बावले, कमल निराला रे कमल निराला रे

ध्रुव तारा तारों से कहता, अरावली भुकण से कहता
मान सरोवर कहता हंसो, मोती चुगना रे मोती चुगना रे

चुग प्राग की अतुल राशि ले, मरुवन को जाता भंवरा ले
भारतवर्ष इसी से होगा कलियों वाला रे कलियों वाला रे
- स्व।श्री तन सिंह जी

जगावें जग में अनुपम ज्योति

जगावें जग में अनुपम ज्योति कौम पर होना है कुर्बान
धर्म पर होना है बलिदान

संघ है जीवन का
कर्म में निहित पतन का अंत
कर्म पथ चले खून से लीप
दीप से चलें जलाते दीप
दीप में स्नेह, स्नेह से ज्योति,
ज्योति पर चढ़े पतंगे आन
होना है बलिदान

दिलाती जौहर ज्वाला याद
अनेकों बलिदानों की साध
मिटे जब दिवानो के झुंड
धर्म पर चढ़े अनेको रुण्ड
बजे तलवार, बहे बस खून,
इसी में क्षात्र धर्म की शान
होना है बलिदान

ज्ञान का कर दूँ नव आलोक
शक्ति से नदियों को दूँ रोक
करूँ मै पर्वत के दो टूक
क्षात्र का मन्त्र सुनाऊं फूंक
बढे यह संघ, संघ में शक्ति,
शक्ति में है सामर्थ्य महान
होना है बलिदान
- श्री तन सिंह जी

क्षात्र धर्म की शान रखाने

क्षात्र धर्म की शान रखाने वीर जाति फिर जाग उठे,
हल्दी घाटी के नालो से हर-हर की हुँकार उठे
जग रक्षक का जयकार उठे

परशुराम ने कई बार जग क्षत्रिय विहीन करवाया
यवनों ने गद्दारों ने फिर फूट डालकर कटवाया
अंग्रेजों ने आकर हमको हाँ हुजुर ही सिखलाया
फिर भी जब-जब पड़ी भीड़ तब जौहर शाका दिखलाया
बुझी हुई उस चिनगारी से विप्लव की सी आग उठे
जड़ चेतन सब जाग उठे

कुतुबुद्दीन की ऊँची अट्टा खड़ी-खड़ी क्या बता रही
ये लाल किले ये मोती मस्जिद हाय -हाय क्या सुना रही
काबुल में जाकर देखो कबरें अब भी सिसक रही
नव्वाबों की संताने अब तांगे इक्के चला रही
म्यानों में तलवारें तडफे शत्रु को ललकार उठे
संघ मन्त्र गुंजार उठे

लहरें बन शत्रु जब आए चट्टानें बन भिडे हमीं
प्यासी भारत माता के हित खूं के बादल बने हमीं
इस समाज की ढाल बने हम , शत्रु दल के काल हमीं
दीवाने बन ऊंटाले में हमने ही तो फाग रमी
गली-गली में एक बार वही रंग सब घोल उठे
होली की भी ज्वाल उठे
- स्व।श्री तन सिंह

परम पूज्य पावन चरणों में

परम पूज्य पावन चरणों में जीवन के अरमान अड़े
अरे तुम्हारे ही इंगित पर सुख दुःख के सब साज पड़े


सदियों से पिसते आए है, सदियों से है दास है बने
धर्म कर्म कर्तव्य भुलाकर अपने कुल के नाश बने
जल्दी तत्व सिखा फिर जिससे, भक्षक का उपनाम उड़े
अरे तुम्हारे ही इंगित पर सुख दुःख के सब साज पड़े

तुमने मार्ग बताया हमको दीपक ज्यों दिन रात जलो
इसीलिए हम खड़े प्रकाश ले अब मुक्ति की और चलो
तव आज्ञा से दीप लड़ी भी विद्युत बनकर ज्योति करे
अरे तुम्हारे ही इंगित पर सुख दुःख के सब साज पड़े

तन को जीवन दिया जन्म ने, मृत्यु उसे ले जायेगी
वैभव और समृद्धि सारी पृथ्वी पर रह जायेगी
इन पर यह अधिकार हमारा सद् अवसर पर त्याग करें
अरे तुम्हारे ही इंगित पर सुख दुःख के सब साज पड़े

इन आँखों से हमने हमको विश्वजयी बनते देखा
इन आँखों से इज्जत पर ही कभी छुरी चलते देखा
फर फर फर फर फहराते हो कहते क्यों नहीं मौन खड़े
अरे तुम्हारे ही इंगित पर सुख दुःख के सब साज पड़े

कुछ देखा कुछ सुना सहा सब तेरी ही तो इच्छा पर
महा हवन पर हविष्य बन कर आए तेरी इच्छा पर
इन प्राणों पर इन भावों पर तव इच्छा अधिकार करे
अरे तुम्हारे ही इंगित पर सुख दुःख के सब साज पड़े

- श्री तनसिंह

जाति के उत्थान पतन की

मै जाति के उत्थान पतन की घडियां देख रहा हूँ
मै घडियां देख रहा हूँ

मै देख रहा प्रात: की किरणे फ़ैल रही दिश-दिश में
मै देख रहा जागृत जग को उत्साह भरा है उसमे
मै मुरझाए निज फूलों की पंखुडियां देख रहा हूँ
पंखुडियां देख रहा हूँ

दुनिया ने पर्वत पार किए है लांघी विशाल नदियाँ,
फहराते विजय पताका अपनी हो गई उनको सदियाँ
मै अपनी निर्बल जाति की आँखडियां देख रहा हूँ
आँखडियां देख रहा हूँ

दुष्टों के हाथों पड़कर मेरी संस्कृति है अकुलाती,
अहंभाव के बीच वीरता पड़ी है बिलबिलाती
तब ही तो सडियल लोगो की हेकडियां देख रहा हूँ
हेकडियां देख रहा हूँ

युवक संघ है आया सबको एक सूत्र में लाने,
गत वैभव की शंखध्वनी को घर-घर पहुचाने
मै अंधरे में आशा की कुछ लड़ियाँ देख रहा हूँ
लड़ियाँ देख रहा हूँ

आराम दक्ष और खेलकूद यह बौद्धिक चर्चा कैसी,
लगी चोट झर रहा पसीना फिर मुस्काने कैसी
अरे प्रेमभाव की कुछ कुछ तो फुलझडियाँ देख रहा हूँ
फुलझडियाँ देख रहा हूँ
-स्व।श्री तनसिंहजी