Wednesday, June 24, 2009

लो उतर पड़ी नैया

लो उतर पड़ी नैया देखे कौन डुबाते है
इस सरिता की छाती हम चीरते जाते है

तट पर साथी दिखते, है हाथो को मलते
जो साथ में रहते है, वे साथी कहाते है
जो दूर खड़े देखे, वे दर्शक होते है


ये जल की गहराई, ये तूफानी आंधी,
ये निर्बल पतवारें ये नेत्र भी झपते है
नैया डगमग करती तब दर्शक हंसते है

यह आंधी क्यों आती? यह लहरें क्यों उठती ?
आती है तो आवै हम बढ़ते जाते है
रे सुनो! चुनौती इनको देखें क्या कर लेते है

अब मेल हुआ देखो, नैया की गति देखो,
रे प्रेम भाव से हम बढ़ते जाते है
आए रम्य किनारे बल और लगाते है

Monday, June 22, 2009

क्षात्र धर्म के पुनरोदय से

क्षात्र धर्म के पुनरोदय से अग जग में उजियारा हो
ऐसा संघ हमारा हो

उतर से जब देश धर्म पर काले बदल घिर आए
तैमूर लंग गौरी नादिर से अत्याचारी घुस आए
उन प्यासों के पीने के हित खून भरे खप्पर लाए
सोमनाथ पानीपत गूंजे जब हमने ललकारा हो
ऐसा संघ हमारा हो

औरंग ने जसवंतसिंह को काबुल में था मरवाया
दुर्गा ने तीखे भालों से मुग़ल तख्त को थर्राया
मालदेव से मुंह की खाकर शेरशाह था घबराया
जब-जब कुचला गया धर्म तब हमने ही फुफकारा हो
ऐसा संघ हमारा हो


कूटनीति से अकबर ने शेरों को भेड़े बनवाई
मेवाड़ सिंह के सिंहनाद से अरावली भी गुर्राई
केशरिया फहरा भूमि को लाल रंग से रंगवाई
हल्दी घाटी के शस्त्रों का फिर एक बार झंकारा हो
ऐसा संघ हमारा हो


चित्तौड़ दुर्ग की बुझी राख में बीती एक कहानी है
जलते दीपक में जौहर की वीरों याद पुरानी है
चूल्हों की अग्नि में देखो पद्मावती महारानी है
हृदय-हृदय में आग उठे फिर घर-घर में जयकारा हो
ऐसा संघ हमारा हो

जब शक्ति थी जगह जगह तब शत्रु को ललकारा था
हाथों में तलवारे लेकर वक्ष फुला हुंकारा था
जननी के चरणों पर अपना सुख दुःख सारा वारा था
भूली संस्कृति की उर में बहती पावन धारा हो
ऐसा संघ हमारा हो


संघ मन्त्र क्षत्रिय जाति की रग-रग में संचय करने
युवा हृदय की तड़पन ले हम आज चले जग जय करने
दावानल की अग्नि बढे जब सत्य न्याय का क्षय करने
उस दावा से धर्म बचाने आगे कदम हमारा हो
ऐसा संघ हमारा हो

अपनी आत्म ज्योति की लौ से क्षात्र धर्म का दीप जले
पथ से विचलित राजपूत को अपना खोया मार्ग मिले
निष्ठ तपस्वी के समान हम संघ कार्य को किए चले
अपने नेता की आज्ञा पर मरना ध्येय हमारा हो
ऐसा संघ हमारा हो

-स्व.श्री तनसिंहजी

मरुभूमि के मध्य

मरुभूमि के मध्य खिला यह कमल निराला रे
कमल निराला रे
अरावली श्रेणी से फैला सूर्य उजाला रे
सूर्य उजाला रे

जागृति का भी जोश रमा है, प्रात: की सुन्दर सुषमा है
गुण ग्राहक भौरों का निकला दल मतवाला रे
निकला दल मतवाला रे

दल के दल भौरें आते है, अपनापन बिसरा जाते है
मस्त बने है सब पीकर जीवन हाला रे जीवन हाला रे

ताना कस कोई कहता है, अली कली में क्यों फंसता है
अली बिचारा क्या गुण जाने खुद तो काला रे खुद तो काला रे

भंवरा भी प्रत्युतर देता, मरुधर है पानी ना होता
फिर भी खिला अरे बावले, कमल निराला रे कमल निराला रे

ध्रुव तारा तारों से कहता, अरावली भुकण से कहता
मान सरोवर कहता हंसो, मोती चुगना रे मोती चुगना रे

चुग प्राग की अतुल राशि ले, मरुवन को जाता भंवरा ले
भारतवर्ष इसी से होगा कलियों वाला रे कलियों वाला रे
- स्व।श्री तन सिंह जी

जगावें जग में अनुपम ज्योति

जगावें जग में अनुपम ज्योति कौम पर होना है कुर्बान
धर्म पर होना है बलिदान

संघ है जीवन का
कर्म में निहित पतन का अंत
कर्म पथ चले खून से लीप
दीप से चलें जलाते दीप
दीप में स्नेह, स्नेह से ज्योति,
ज्योति पर चढ़े पतंगे आन
होना है बलिदान

दिलाती जौहर ज्वाला याद
अनेकों बलिदानों की साध
मिटे जब दिवानो के झुंड
धर्म पर चढ़े अनेको रुण्ड
बजे तलवार, बहे बस खून,
इसी में क्षात्र धर्म की शान
होना है बलिदान

ज्ञान का कर दूँ नव आलोक
शक्ति से नदियों को दूँ रोक
करूँ मै पर्वत के दो टूक
क्षात्र का मन्त्र सुनाऊं फूंक
बढे यह संघ, संघ में शक्ति,
शक्ति में है सामर्थ्य महान
होना है बलिदान
- श्री तन सिंह जी

क्षात्र धर्म की शान रखाने

क्षात्र धर्म की शान रखाने वीर जाति फिर जाग उठे,
हल्दी घाटी के नालो से हर-हर की हुँकार उठे
जग रक्षक का जयकार उठे

परशुराम ने कई बार जग क्षत्रिय विहीन करवाया
यवनों ने गद्दारों ने फिर फूट डालकर कटवाया
अंग्रेजों ने आकर हमको हाँ हुजुर ही सिखलाया
फिर भी जब-जब पड़ी भीड़ तब जौहर शाका दिखलाया
बुझी हुई उस चिनगारी से विप्लव की सी आग उठे
जड़ चेतन सब जाग उठे

कुतुबुद्दीन की ऊँची अट्टा खड़ी-खड़ी क्या बता रही
ये लाल किले ये मोती मस्जिद हाय -हाय क्या सुना रही
काबुल में जाकर देखो कबरें अब भी सिसक रही
नव्वाबों की संताने अब तांगे इक्के चला रही
म्यानों में तलवारें तडफे शत्रु को ललकार उठे
संघ मन्त्र गुंजार उठे

लहरें बन शत्रु जब आए चट्टानें बन भिडे हमीं
प्यासी भारत माता के हित खूं के बादल बने हमीं
इस समाज की ढाल बने हम , शत्रु दल के काल हमीं
दीवाने बन ऊंटाले में हमने ही तो फाग रमी
गली-गली में एक बार वही रंग सब घोल उठे
होली की भी ज्वाल उठे
- स्व।श्री तन सिंह

परम पूज्य पावन चरणों में

परम पूज्य पावन चरणों में जीवन के अरमान अड़े
अरे तुम्हारे ही इंगित पर सुख दुःख के सब साज पड़े


सदियों से पिसते आए है, सदियों से है दास है बने
धर्म कर्म कर्तव्य भुलाकर अपने कुल के नाश बने
जल्दी तत्व सिखा फिर जिससे, भक्षक का उपनाम उड़े
अरे तुम्हारे ही इंगित पर सुख दुःख के सब साज पड़े

तुमने मार्ग बताया हमको दीपक ज्यों दिन रात जलो
इसीलिए हम खड़े प्रकाश ले अब मुक्ति की और चलो
तव आज्ञा से दीप लड़ी भी विद्युत बनकर ज्योति करे
अरे तुम्हारे ही इंगित पर सुख दुःख के सब साज पड़े

तन को जीवन दिया जन्म ने, मृत्यु उसे ले जायेगी
वैभव और समृद्धि सारी पृथ्वी पर रह जायेगी
इन पर यह अधिकार हमारा सद् अवसर पर त्याग करें
अरे तुम्हारे ही इंगित पर सुख दुःख के सब साज पड़े

इन आँखों से हमने हमको विश्वजयी बनते देखा
इन आँखों से इज्जत पर ही कभी छुरी चलते देखा
फर फर फर फर फहराते हो कहते क्यों नहीं मौन खड़े
अरे तुम्हारे ही इंगित पर सुख दुःख के सब साज पड़े

कुछ देखा कुछ सुना सहा सब तेरी ही तो इच्छा पर
महा हवन पर हविष्य बन कर आए तेरी इच्छा पर
इन प्राणों पर इन भावों पर तव इच्छा अधिकार करे
अरे तुम्हारे ही इंगित पर सुख दुःख के सब साज पड़े

- श्री तनसिंह

जाति के उत्थान पतन की

मै जाति के उत्थान पतन की घडियां देख रहा हूँ
मै घडियां देख रहा हूँ

मै देख रहा प्रात: की किरणे फ़ैल रही दिश-दिश में
मै देख रहा जागृत जग को उत्साह भरा है उसमे
मै मुरझाए निज फूलों की पंखुडियां देख रहा हूँ
पंखुडियां देख रहा हूँ

दुनिया ने पर्वत पार किए है लांघी विशाल नदियाँ,
फहराते विजय पताका अपनी हो गई उनको सदियाँ
मै अपनी निर्बल जाति की आँखडियां देख रहा हूँ
आँखडियां देख रहा हूँ

दुष्टों के हाथों पड़कर मेरी संस्कृति है अकुलाती,
अहंभाव के बीच वीरता पड़ी है बिलबिलाती
तब ही तो सडियल लोगो की हेकडियां देख रहा हूँ
हेकडियां देख रहा हूँ

युवक संघ है आया सबको एक सूत्र में लाने,
गत वैभव की शंखध्वनी को घर-घर पहुचाने
मै अंधरे में आशा की कुछ लड़ियाँ देख रहा हूँ
लड़ियाँ देख रहा हूँ

आराम दक्ष और खेलकूद यह बौद्धिक चर्चा कैसी,
लगी चोट झर रहा पसीना फिर मुस्काने कैसी
अरे प्रेमभाव की कुछ कुछ तो फुलझडियाँ देख रहा हूँ
फुलझडियाँ देख रहा हूँ
-स्व।श्री तनसिंहजी

हिन्दू के कुल के उजियारे

हिन्दू के कुल के उजियारे बन क्षत्रिय आगे आवें
हम ऐसा संघ बनावें

क्षात्र धर्म के पालन के हित शक्ति खूब बढावें,
निज शरीर को लोह बनाकर कड़ी-कड़ी जुड जावें
हम ऐसा संघ बनावें


टूटे उर के चिनगारी ले ऐसी आग लगावें,
दुष्ट दलन के हित हम सारे शम्भू नयन बन जावें
हम ऐसा संघ बनावें

संघ भूमि पर नियमित जाकर ऐसी दीक्षा पावें,
गत वैभव पर धीरज से हम कदम कदम बढ़ जावें
हम ऐसा संघ बनावें


संघ दीप से जलकर हम सब दीप लड़ी बन जावें,
भाव कर्म को एक बनाकर व्यक्तिवाद बिसरावें
हम ऐसा संघ बनावें

बिछुडे है हम युग युग से अब पुनर्मिलन है आया,
आओ प्रिय केशारियां को हम अपना शीश झुकावें
हम ऐसा संघ बनावें

हमको मिला देख गर्व से धर्म पताका फहरी,
रोम-रोम में इसकी आज्ञा अपना धर्म निभावें
हम ऐसा संघ बनावें

इसका आशीर्वाद मिलेगा चलो कर्म रत होवें,
संघ कार्य निष्काम भाव से करने में जुट जावें
हम ऐसा संघ बनावें
-स्व।श्री तनसिंहजी

अब भी क्षत्रिय तुम उठते नहीं

अब भी क्षत्रिय तुम उठते नहीं फिर आखिर उठके करोगे क्या ?
वीरों का जीना जीते नहीं बकरों की मौत मरोगे क्या ?
जौहर की ज्वाला धधकेगी पानी में डूब मरोगे क्या

युग पलटा है प्रणाली पलटी रोना पलटा हुंकारों में
पानी जो गया पातालों में अब पलटेगा तलवारों में
पलटे दिन की रणभेरी है उसको अनसुनी करोगे क्या ?

युग युग से हुंके उठती है चितौड़ दुर्ग दीवारों से
हिन्दू क्या रोते पृथ्वी रोती आंसू पड़ते तारों से
वे केसरिया बन जूझे थे तुम पीठ दिखा भागोगे क्या ?

शक्ति शौर्य जो पास नहीं तो विजय नहीं जयकारों में
निर्बल की नैया डगमग करती दोष कहाँ पतवारों में
अब बाहूबल संचित करने भी धीरे कदम रखोगे क्या ?

शिवी ने शरणागत खग को बचाने मांस निज काट दे दिया था
गौरक्षा हित तेरा पूर्वज स्वयं समर्पित हो गया था
अब मरने की बेला आएगी आँखे बंद करोगे क्या ?

धर्म भ्रष्ट कर्तव्यहीन बन जग में भी जिवोगे क्या ?
अपने हाथों से घर जलवा कर रस्ते पर लौटोगे क्या ?
रे प्राण गए तो देह नाश से कभी बचा पावोगे क्या ?

- श्री तनसिंहजी ,बाड़मेर

बड़ा मीठा है मेरा दर्द

बड़ा मीठा है मेरा दर्द मगर मैं पी नहीं सकता।
ज़हर है वह मगर जिसको पिये बिन जी नहीं सकता॥

कोई कहते हैं जिन्दी है बहारें जिन्दगानी की।
बहुत हमने अदाएं भी बुलाई थी जवानी की।
कभी सपनों में आई हो मगर मैं छू नहीं सकता॥
बड़ा मीठा है...

उड़ाने ली हैं मैंने तो गगन की घाटियों में भी।
पांखें हो चुकी हैं क्लान्त सिर्फ दो मंजिलों में ही।
धधकती आग है दिल में मगर मैं जल नहीं सकता॥
बड़ा मीठा है...

हारा हूं थका हूं मैं संभालो कोई बांहों में
कोई मोती न गिर जाए अरे आंखों की राहों में
जमाना है बड़ा बेरुख मगर मैं मर नहीं सकता॥
बड़ा मीठा है...

नया मेरा बगीचा रे उमीदें लहलहाती है।
हसीं दुनिया बिना इसके न मुझको रंच भाती है।
लगी जलने शमां भी अब, पतंगा रह नहीं सकता॥
बड़ा मीठा है...

बुलाता खून मुझे अपना सदियों बाद सिमटने को।
उठती हूक थी गहरी उमड़ी है भभकने को।
जो थाती कौम की पाई उसे मैं खो नहीं सकता॥
बड़ा मीठा है...
- पूज्य श्री तन सिंह जी

Friday, June 5, 2009

इतिहास की चोटों का

इतिहास की चोटों का एक दाग लिए फिरते है
सीने के घराने में इक दर्द लिए फिरते है

हम भूल नही सकते महमूद तेरी गजनी
अब तक भी आंखों में वह खून लिए फिरते है
इतिहास की चोटों का इक दाग लिए फिरते है

बाबर तेरे प्याले टूटे बता कितने ?
पर सरहदी का अफ़सोस लिए फिरते है
इतिहास की चोटों का इक दाग लिए फिरते है

झाला था इक माना कुरम था इक माना
सोने के लगे जंग पै अचरज लिए फिरते है
इतिहास की चोटों का इक दर्द लिए फिरते है

कर्जन तेरी दिल्ली में अनमी था इक राना
सड़कों पे गिरे ताजों के रत्न चुगा फिरते है
इतिहास की चोटों का इक दर्द लिए फिरते है

आपस में लड़े भाई गैरों ने हमें कुचला
अब मिलकर लड़ने का अरमान लिए फिरते है
इतिहास की चोटों का इक दाग लिए फिरते है

आराम कहाँ जब जीवन में अरमान अधूरे रह जाते |

आराम कहाँ जब जीवन में अरमान अधूरे रह जाते

दिल की धड़कन शेष रहे हाथों के तोते उड़ जाते

तिल-तिल कर तन की त्याग तपस्या का अमृत संचय करते

अमिय भरे रस कुम्भ कभी यदि माया की ठोकर खाते

सागर में सीपें खोज-खोज माला में मोती पोये थे

पर हाय ! अचानक टूट पड़े यदि प्रेम तंतु जब पहनाते

घोर अँधेरी रात्रि में था दीप जला टिम-टिम करता

अंधेर हुआ जब बह निकला नैराश्य पवन मग में चलते

निर्जीव अँगुलियों के चलते स्वर साधक बनना सीखा था

मादक वीणा के टूट चुके हों तार अभागे हा ! बजते

बचपन में बाहें डाल चले सोचा था साथी है जग में

दो कदम चले फिर बिछुड़ गए एकाकी को आराम कहाँ ?

श्री तन सिंह ,बाड़मेर ११ अगस्त १९४९

बलि पथ के सुंदर प्राण



बलि पथ के सुंदर प्राण

बलि होना धर्म तुम्हारा,

जीवन हित क्यों पय पान


आज खडा तू मंदिर आगे,

देव पुरुष के है भाग्य जागे

टूट रहे है जग के धागे

मत मांग अभय वरदान १

बलि पथ के सुंदर प्राण


जीवन है कर्तव्य की कहानी,

चंद दिनों की मस्त जवानी

मर कर चख ले रे अज्ञानी

कर ले पुरे अरमान २

बलि पथ के सुंदर प्राण


दीपक की बलि है जलने में,

फूलों की बलि है खिलने में

बलि होता स्वच्छ सलिल झरने में

कह बलिदान चाहे कल्याण ३

बलि पथ के सुंदर प्राण


वीर पूंग्वो की धरनी ,

प्रेममई भारत जननी पर

यज्ञ भूमि दुःख ताप हरनि पर

अब जलने दो श्मशान ४

बलि पथ के सुंदर प्राण


२४ मार्च १९५०

चुनौती



भाग्य और पुरुषार्थ में विवाद उठ खड़ा हुवा उसने कहा में बड़ा दुसरे ने कहा में बड़ा विवाद ने उग्र रूप धारण कर लिया,यश ने मध्यस्था स्वीकार कर निर्णय देने का वचन दिया दोनों को यश ने आज्ञा दी कि तुम मृत्यु लोक में जावो दोनों ने बाहें तो चढा ली पर पूछा ‘महाराज हम दोनों एक ही जगह जाना चाहते है पर जायें कहाँ ? हमें तो ऐसा कोई दिखाई नही देता ‘ यश कि आँखे संसार को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते हमीर पर आकर ठहर गई वह हठ की चुनौती थी
हमीर ने कहा स्वीकार है एक मंगलमय पुन्य प्रभात में हठ कि यहाँ शरणागत वत्सलता ने पुत्री के रूप में जन्म लिया,वह वैभव के मादक हिंडोली में झूलती,आँगन में घुटनों के बल गह्कती,कटि किंकन के घुन्घुरुओ कि रिमझिम के साथ बाल सुलभ मुक्त हास्य के खजाने लुटातीएक दिन सयानी हो गई स्वयंबर में पिता ने घोषणा कि ‘इस अनिन्ध्य सुंदरी को पत्नी बनाने वाले को अपना सब कुछ देना पड़ता है यही इसकी कीमत है ’वह त्याग कि चुनौती थी हमीर ने कहा स्वीकार है त्याग कि परीक्षा आई सोलह श्रंगार से विभूषित,कुलीनता के परिधान धारण कर गंगा कि गति से चलती हुयी शरणागत वत्सलता सुहाग रात्रि के कक्ष में हमीर के समक्ष उपस्थित हुयी -नाथ ! में में आपकी शरण में हु परन्तु मेरे साथ मेरा सहोदर दुर्भाग्य भी बाहर खड़ा है ,क्या फ़िर भी आप मुझे सनाथ करेंगे ?वह भाग्य कि चुनौती थी हमीर ने कहा स्वीकार है
अलाउद्दीन कि फौज का घेरा लगा हुवा था बीच में हमीर कि अटल आन का परिचायक रणथम्भोर का दुर्ग सिर ऊँचा किए इस प्रकार खड़ा था जेसे प्रलय से पूर्व तांडव मुद्रा में भगवान शिव तीसरा नेत्र खोलने के समय कि प्रतीक्षा कर रहें हों,मीरगमरू और मम्मुश कह रहे थे -,इन अदने सिपाहियों के लिया इतना त्याग राजन ! हमारी शरण का मतलब जानते हो ?हजारों वीरों कि जीवन कथाओं का उपसंहार,हजारों ललनाओ कि अतृप्त आकाँक्षाओं का बाल पूर्वक अपहरण,हजारों निर्दोष मानव कलिकाओं को डालियों से तोड़ कर,मसल कर आग में फेंक देना,इन रंगीले महलों के सुनहले यौवन पर अकाल मृत्यु के भीषण अवसाद को डालना ’वह परिणाम कि चुनौती थी हमीर ने कहा स्वीकार है ’भोज्य सामग्री ने कहा -” में किले में नही रहना चाहती,मुझे विदा करो ”वह भूख मरी की चुनौती थी हमीर ने कहा -”स्वीकार है रणचंडी ने कहा - “में राजपूतों और तुम्हारा बलिदान चाहती हूँ ,इस चहकते हुए आबाद किले को बर्बाद कर प्रलय का मरघट बनाना चाहती हूँ ”वह मर्त्यु की चुनौती थी हमीर ने कहा -”स्वीकार है ”

शाका ने आकर कहा केसरियां वस्त्र की भेंट दी और कहा ‘ मुझे पिछले कई वर्षों से बाँके सिपाहियों का साक्षात्कार का अवसर नही मिला मै जिन्दा रहूँगा तब तक पता नही वे रहेंगे या नही ’वह शोर्य की चुनौती थी हमीर ने कहा -”स्वीकार है ”हमीर के हाथो में लोहा बजने लगा अन्तर की प्यास को हाथ पिने लगे उसके पुरुषार्थ का पानी तलवार में चढ़ने लगा खून की बाढ़ आ गई और उसमे अलाउद्दीन की सेना डूब गई मानवता की सरल -हृदया शान्ति ने हमीर की तलवार पकड़ ली और फ़िर उसे छोड़कर चरणों में गिर पड़ी वह विजय की चुनौती थीहमीर ने कहा -”स्वीकार है ’अप्रत्याशित विजय पर हमीर के सिपाही शत्रु सेना के झंडे उछालते,घोडे कुदाते,रणथम्भोर के किले की तरफ जा रहे थे

दुर्भाग्य ने हाथ जोड़कर रह रोक ली - ” हे नृप श्रेष्ठ ! मै जन्म जन्म का अभागा हूँ जिस पर प्रसन्न होता हूँ उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है में जनता हूँ मेरी शुभकामनायों का परिणाम क्या हुवा करता है परन्तु आप जेसे निस्वार्थी और परोपकारी क्षत्रिय के समक्ष न झुकाना भी कृतध्नता है आप जेसे पुरुषार्थी मेरा सिर भी फोड़ सकते है,फ़िर भी मेरा अन्तः करण आपकी प्रसंशा के लिए व्याकुल है क्या में आपकी प्रसंशा प्रकट करूँ ?वह विधाता की चुनौती थी हमीर ने कहा - स्वीकार है शत्रु पक्ष के झंडों को उछलते देख दुर्ग के प्रहरी ने परिणाम का अनुमान लगा लिया,बारूद के ढ़ेरी में भगवान का नाम लेकर बती लगादी गई आँख के पलक एक झपके के साथ धरती का पेट फुट गया चहचहाती जवान जिंदगियां मनहूस मौत में बदल गई हजारों वीरांगनाओं का अनूठा सोंदर्य जल कर विकराल कुरूपता से एंठ गया, मंद मंद और मंथर मंथर झोंकों द्वारा बीलोडित पालनों में कोलाहल का अबोध शिशु क्षण भर में ही नीरवता का शव बन चुका था गति और किलोले करते खगव्रन्द ने चहचहाना बंद कर अवसाद में कुरलाना शुरू कर दिया जिंदगी की जुदाई में आकाश रोने लगा सोती हुयी पराजय मुंह से चादर हटाकर खड़ी हो गई कुमकुम का थाल लेकर हमीर के स्वागत के लिए द्वार पर आई - “प्रभु ! मेरी सौत विजय को तो कोई भी स्वीकार कर सकता है परन्तु मेरे महलो में आप ही दीपक जला सकते है ”वह साहस की चुनौती थी हमीर ने कहा -”स्वीकार है”हमीर ने देखा,कारवां गुजर चुका है और उसकी खेह भी मिटने को है , बगीचे मुरझा गए है और खुसबू भटक रही है जीवन के अरमान मिटटी में धूमिल पड़ गए है और उनकी मनोहर स्मर्तियाँ किसी वैरागी की ठोकर की प्रतीक्षा कर रही है,म्रत्यु ने आकर कहा -नर श्रेष्ठ ! अब मेरी ही गोद तुम्हारे लिए खाली है वह निर्भीकता की चुनौती थी हमीर ने कहा -”स्वीकार है ”महाकाल के मन्दिर में हमीर ने हाथों अपना अनमोल मस्तक काट कर चढा दिया पुजारी का लौकिक जीवन समाप्त हो गया परन्तु उसके यश्वी हठ द्वारा स्थापित अलौकिक प्रतिष्ठा ने इतिहास से पूछा -”क्या ऐसा कोई हुवा है ? ” फ़िर उसने लुटे हुए वर्तमान की गोदी में खेलते हुए भविष्य से भी पूछा -”क्या ऐसा भी कोई होगा ? प्रश्न अब भी जिघासु है और उत्तर निरुत्तर रणथम्भोर लुटी हुयी कहानी का सुहाग अभी तक लौट कर नही आया, उसका वैधव्य बीते दिनों की याद में आंसू बहा रहा है यह शरणागत वत्सलता की चुनौती है परन्तु इस चुनौती को कोंन स्वीकार करे ? हमीर की आत्मा स्वर्ग पहुँच गई,फ़िर भी गवाक्षों में लौट कर आज भी कहती है -”स्वीकार है ”यश पुरुषार्थ की तरफ हो गया भाग्य का मुंह उतर गया

नई पीढी आज भी पूछती है -“सिंह गमन सत्पुरुष वचन,कदली फ़लै इक बार तिरया तेल हमीर हठ, चढ़े न दूजी बार जिसके लिए यह दोहा कहा गया वह रणथम्भोर का हठीला कौन था ?

तब अतीत के पन्ने फड फड़ा कर उतर देतें है -”वह भी एक क्षत्रिय था” चित्रपट चल रहा था द्रश्य बदलते जा रहे थे

हाड़ी रानी

हाड़ी रानी और उसकी सैनाणी ( निशानी )


एक ऐसी रानी जिसने युद्ध में जाते अपने पति को निशानी मांगने पर अपना सिर काट कर भिजवा दिया था यह रानी बूंदी के हाडा शासक की बेटी थी और उदयपुर (मेवाड़) के सलुम्बर ठिकाने के रावत रतन सिंह चुण्डावत की रानी थी जिनकी शादी का गठ्जोडा खुलने से पहले ही उसके पति रावत रतन सिंह चुण्डावत को मेवाड़ के महाराणा राज सिंह (1653-1681) का औरंगजेब के खिलाफ मेवाड़ की रक्षार्थ युद्ध का फरमान मिला नई-नई शादी होने और अपनी रूपवती पत्नी को छोड़ कर रावत चुण्डावत का तुंरत युद्ध में जाने का मन नही हो रहा था यह बात रानी को पता लगते ही उसने तुंरत रावत जी को मेवाड़ की रक्षार्थ जाने व वीरता पूर्वक युद्ध करने का आग्रह किया युद्ध में जाते रावत चुण्डावत पत्नी मोह नही त्याग पा रहे थे सो युद्ध में जाते समय उन्होंने अपने सेवक को रानी के रणवास में भेज रानी की कोई निशानी लाने को कहा सेवक के निशानी मांगने पर रानी ने यह सोच कर कि कहीं उसके पति पत्नीमोह में युद्ध से विमुख न हो जाए या वीरता नही प्रदर्शित कर पाए इसी आशंका के चलते इस वीर रानी ने अपना शीश काट कर ही निशानी के तौर पर भेज दिया ताकि उसका पति अब उसका मोह त्याग निर्भय होकर अपनी मातृभूमि के लिए युद्ध कर सके और रावत रतन सिंह चुण्डावत ने अपनी पत्नी का कटा शीश गले में लटका औरंगजेब की सेना के साथ भयंकर युद्ध किया और वीरता पूर्वक लड़ते हुए अपनी मातृभूमि के लिए शहीद हो गया

स्व.पु.श्री तनसिंहजी द्वारा लिखित पुस्तकें

1-राजस्थान रा पिछोला - पिछोला को अंग्रेजी में Elegy कहते है और उर्दू में मरसिया मृत्यु के उपरांत मृतात्मा के प्रति उमड़ते हुए करून उदगारों के काव्य रूप को ही पिछोला कहतें है पिछोले मृत्यु की ओट में गए प्रेमी की मधुर स्मृति पर श्रद्धा व प्रेम के भाव-प्रसून है इस पुस्तक से करुण रस का रसास्वादन करके हम राजस्थानी साहित्य की सम्पन्नता प्रमाणित करने में समर्थ हो सकतें है
2- समाज चरित्र - समाज जागरण के निमित केवल आन्दोलन ही उचित मार्ग नही है आन्दोलन तो संगठन शक्ति का प्रदर्शन मात्र है वह जनमत की अभिव्यक्ति है किंतु स्वयम जनमत का निर्माण करना एक कठिन काम है अनेक सामाजिक संस्थाएं सामाजिक शक्ति को उभारने का कार्य करती है,किंतु निर्बल की नैसर्गिक शक्ति बार -बार उभर कर अपने विनाश का कारण ही बनती है जब तक की शक्ति को उभारने वाले स्वयम शक्ति के उत्पादक न बन जाय संस्थाएं स्वयम अपने और अपने उदेश्य के प्रति स्पष्ट नही होती तब तक सामाजिक चरित्र गोण ही बना रहता है इसी कमी को पुरा करने के लिए एक व्यवसायिक शिक्षण और मार्ग दर्शन की आवश्यकता महसूस करके यह पुस्तक लिखी गई जो साधना की प्रारम्भिक अवस्था में साधकों का मार्ग दर्शन करने में उपयोगी सिद्ध हो रही है
3-बदलते दृश्य- इतिहास के इतिव्रतात्मक सत्य के अन्दर साहित्य के भावात्मक और सूक्ष्म सत्य के प्रतिस्ठापन की चेष्ठा ही समाज में चेतना ला सकती है समाज में आत्म-सम्मान और आत्म-गौरव की भावनाओं का सर्जन करना इस पुस्तक का लक्ष्य है
4- होनहार के खेल -पु.तनसिंहजी के पॉँच रोचक हिन्दी निबंदों से सृजित होनहार के खेल राजस्थान की संस्कृति,योधा समाज के जीवन दर्शन,और जीवन मूल्यों से ओत-प्रोत है इसमे राजपूत इतिहास और राजपूत सस्कृति मुखरित है क्षत्रिय समाज के सतत संघर्ष,अद्वितीय उत्सर्ग,और महान द्रष्टि का शाश्वत सत्य गुंजित है पु.तनसिंहजी की पीडा,तड़पन,उत्सर्ग की महत्ता और उत्थान की लालसा पुस्तक के प्रत्येक शब्द में संस्पदित है हमारे लिए एतिहासिक आधार भूमि को ग्रहण कर एक जीवन संदेश है
5-साधक की समस्याएं- साध्य प्राप्ति के लिए साधक के पथ में क्या समस्याएं व कठिनाईयां क्या है ? और कब-कब सामने किस रूप में बाधक बन कर आती है तथा उन्हें कैसे पहचाना जाय और उनका किस प्रकार सामना किया जाय इन सब पहलुओं का विस्तार से इस पुस्तक समाधान किया गया है
6-शिक्षक की समस्याएं- सच्ची शिक्षा का अभिप्राय अपने भीतर श्रेष्ठ को प्रकट करना है साधना के शिक्षक को प्राय: यह भ्रम हो जाता है कि वह किसी का निर्माण कर रहा है सही बात तो यह है कि जो हम पहले कभी नही थे,वह आज नही बन सकते हमारा निर्माण,किसी नवीनता की सृष्टी नही है,बल्कि उन प्रच्छन शक्तियों का प्रारम्भ है जिनसे हमारे जीवन और व्यक्तित्व का ताना बना बनता है साधना पथ में स्वयम शिक्षक एक स्थान पर शिक्षक है और उसी स्थान पर शिक्षार्थी भी है इसलिय शिक्षण कार्य में आने वाली समस्याएं शिक्षक की समस्याएं होती है वे समस्याएं क्या है और किस रूप में सामने आती है,उनका समाधान क्या है ? यही इस पुस्तक का विषय है
7- जेल जीवन के संस्मरण- भू-स्वामी आन्दोलन समय श्री तनसिंह जी को गिरफ्त्तार कर टोंक जेल में रखा गया था जेल में जेलर और सरकार का उनके साथ व्यवहार व जेल में रहकर जो घटा और जो अनुभव किए उनके उन्ही संस्मरणों का उल्लेख इस पुस्तक में है
8- लापरवाह के संस्मरण- इस पुस्तक में पु.तनसिंह जी के अपने अनुभव है तो उनके संघ मार्ग पर चलते उनके अनुगामियों का चित्रण भी है जिसे रोचक और मनोरंजक भाषा में पिरोकर पुस्तक का रूप दिया गया है
9-पंछी की राम कहानी- संघ कार्य की आलोचना समय-समय पर होती रही है तन सिंह जी की आलोचना और विरोध भी कई बार विविध रूपों में होता रहा है विरोध के दृष्टीकोण से ही देखकर संघ के बारे में जिस प्रकार की आलोचना की गई या की जा सकती है उसे ही मनोविनोद का रूप देकर पु.तनसिंह जी ने एक लेखमाला का रूप दिया,जो इस पुस्तक के रूप में प्रस्तुत है
10-एक भिखारी की आत्मकथा- श्री तनसिंह जी द्वारा लिखित एक भिखारी की आत्मकथा बहु-आयामी संघर्षों के धनी जीवन का लेखा-जोखा है और यह लेखा-जोखा स्वयम श्री तनसिंह जी के ही जीवन का लेखा-जोखा है वास्तव में आत्मकथा श्री तनसिंह जी की अपनी ही है 11-गीता और समाज सेवा - गीता श्री तनसिंह जी का प्रीय और मार्गदर्शक रही है गीता ज्ञान के आधार पर ही उन्होंने श्री क्षत्रिय युवक संघ की स्थापना की थी धेय्य निष्ठां और अनन्यता का मन्त्र भी उन्होंने गीता से ही पाया क्षात्रशक्ति और संघ की आवश्यकता और महत्व भी उन्होंने गीता पढ़कर ही महसूस की गीता का व्यवहारिक ज्ञान जिसमे कर्म,ज्ञान और भक्ति का अद्भुत समन्वय है, को संघ में उतारने का बोध भी उन्हें गीता से ही हुआ-इसी से प्रेरणा मिली एक सच्चे समाज सेवक के लिए गीता का क्या आदेश है और किस प्रकार सहज भाव से किया जा सकता है और क्या करना आवश्यक है,इन्ही महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख “गीता और समाज सेवा ” पुस्तक में किया गया है
12- साधना पथ- गीता के आध्यात्मवाद के आन्दोलन पथ पर बढ़ते योगेश्वर श्री कृष्ण ने योग का जो मार्ग सुझाया है उसी लक्ष्य को सम्यक रूप से आत्मसात करने तक हर साधना को गतिमय होना चाहिय सर्वांगीण साधना वही है जिसमे व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को जागृत कर सके स्वधर्म पालन एक महान कार्य है महान कार्यों की पूर्ति के लिए ईश्वर से एकता स्थापित करना परमाव्यस्क है, किसी अनुष्ठात्मक भक्ति से ईश्वर को छला नही जा सकता श्री तन सिंह जी ने सम्पूर्ण योग योग मार्ग के आठ सूत्र सुझाएँ है वे हैं -1- बलिदान का सिद्धांत 2- समष्टि योग 3- श्रद्धा 4- अभिप्षा 5- शरणागति 6- आत्मोदघाटन 7- समर्पण भाव8- योग
13- झनकार- श्री तनसिंहजी द्वारा लिखे गए 166 गीतों,कविताओं आदि के संकलन को “झनकार” नाम देकर पुस्तक का रूप दिया गया है झनकार के एक-एक गीत एक-एक पंक्ति अपने आप में एक काव्य है
उपरोक्त पुस्तकें ” श्री संघ शक्ति प्रकाशन प्रन्यास A / 8, तारा नगर झोटवाडा, जयपुर -302012 से प्राप्त की जा सकती है

Sunday, May 31, 2009

भगवान की गोद


पु.स्व.श्री तनसिंह जी की कलम से (बदलते द्रश्य)


छविगृह में जब में पहुँचा तब चित्र शुरू हो गया था देखने वालों की कमी नही थी किंतु उनमे भी अधिक वे लोग थे जो द्रश्य बनकर लोगों की आंखों में छा जा जाते थे,मै तो आत्मविभोर सा हो गया चित्रपट चल रहा था और द्रश्य बदल रहे थे


राजा उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव अपने पिता की गोद के लिए ललचाने लगा किंतु सौतेली माँ सुरुचि की डाह का शिकार बन कर तिरस्कृत हो अपनी माँ सुनीति के पास गया और पूछने लगा,माँ ! क्या मेरे पिता भी है जिनकी गोद में दो क्षण बैठकर स्नेह का एक आध कटाक्ष भी प् सकूँ ?सुनिती कहती है -हाँ बेटा ! तेरे पिता भगवान है जिनके लिए इस संसार की कोई गोद खाली नही होती उन्हें प्रभु की गोद सदेव आमंत्रित किया करती है और ध्रुव पड़ा घर से घोर जंगलों में,अपने छिपे हुए पिता की खोज में,अकड़ते हुए तूफान उसे झुकाने आए किंतु स्वयम झुक कर चले गए,उद्दंड और हिंसक जंतु आए उसे भयभीत करने के लिए किंतु स्वयम नम्रतापूर्वक क्षमा मांगते हुए चले गए,घनघोर वर्षा प्रलय का संकल्प लेकर आई उसकी निष्ठा को बहाने,किंतु उसकी निर्दोष और भोली द्रढता को देखकर अपनी झोली से नई उमंगें बाँट कर चली गई,कष्ट और कठिनाईयों ने सांपो की तरह फुफकार कर उसे स्थान भ्रष्टकरना चाहा किंतु वे भी पुचकारते हुए उत्साहित कर चले गए उसे बालक समझ कर नारद लौट जाने का उपदेश देने आए थे मगर गागर में सागर की निष्ठा देखकर भावमग्न हो अपनी ही वीणा के तार तोड़ कर चले गए एक दिन ऐसा उगा कि पहाड़ पिघलने लग गए,नदियों का प्रवाह ठोस होकर सुन्न पड़ गया,उसकी तपस्या के तेज से स्वयं सूर्य निस्तेज होकर व्याकुल हो उढे,स्रष्टि के समस्त व्यापार विस्मयविमुग्ध हो हतप्रभ से ठिठक कर रुक गए,और तो और स्वयम जगतपिता का अडिग सिंहासन डगमगाने लगा,क्षीरसागर वेदना से खौल उठा ब्रह्मा जी ने वेदपाठ बंद कर भगवान कि और देखा और भगवान अपनी गोदी का आँचल पसार कर गरुड़ की सवारी छोड़ पैदल ही दौडे पड़े
- “बेटा ! रहने दे में तेरा पिता हूँ मुझे नींद आ गई थी आ,मेरी गोद में बैठ- देख,यह कब से सुनी पड़ी है" "परन्तु सुरुचि माता के कहने पर आप मुझे धक्का तो नही देंगे ?नही बेटा,मेरी गोद में तेरा अटल और अचल स्थान रहेगा,जो जन्म-जन्मान्तरों की तपस्या के बाद योगियों और तपस्वियों के लिए भी दुर्लभ है पुजारी ने अपने पूज्य को ही पुजारी बना कर छोड़ा मोह रहित भी मोहित हो गए निराकार साकार हो गए मायारहित होकर भी जगत पिता की आंखों में स्नेह के बादल उमड़ आए ध्रुव अपने घर लौट रहा था और राह के पेड़ पौधे,लता-गुल्म और पशु पक्षी कह रहे थे
"ध्रुव तुम निश्चय ही एक क्षत्रिय हो"
Post By : Pradeep Aabarsar